क्यूँ
मुझे तुम जानती हो
**********************
जानता
तुम्हें नहीं
पहचानता
तुम्हें नहीं
है
बहुत कुछ तुमसे कहना
पर
सूझता कुछ भी नहीं
रोकने
से ना रुकोगी
दुनिया
से ना डरोगी
चाहोगी
अगर दूर जाना
आह
! एक ना करोगी
आसुओं
की बाड़ में
नीतियों
की मझधार में
पार
तुम्हें है जाना
कुटिल
इस संसार में
रक्त
में एक रोष होगा
स्वयं
का ही दोष होगा
पर
चीरना है अपने दिल को
जितना
भी आक्रोश होगा
जब
ह्रदय में ईश का वास है
तो
क्यूँ मिलन की आस है
डूबी
रही हो प्रेम में पर
सदियों
की सी ये प्यास है
सत्य
की राह जानती हो
संसार
की रीत मानती हो
दुविधा
का दलदल हूँ मैं
फिर
क्यूँ मुझे तुम जानती हो
क्यूँ
मुझे पहचानती हो
No comments:
Post a Comment